समावेशन : खुद से शुरुआत ……

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डा० सुमन शर्मा, असिस्टेंट प्रोफेसर, एससीआरटी दिल्ली।

 

 

         आलेख

 

       समावेशन : खुद से शुरुआत ……

 

अति संवेदनशीलता कई बार इस रूप में भी नजर आती है कि लोग सामान्य होने का भी मौका नहीं देते। जैसे किसी दिव्यांग व्यक्ति के हल्का सा हिलते ही – अरे ! कहा जा रहे हैं ?, कोई मदद करे ?, परेशान न हो हमें बताओ आदि-आदि।

तब मुझ जैसे आलसी इंसान – ओह शुक्रिया, कह कर वही बैठ जाते हैं। और जो कुछ काम होता हैं जैसे – कुछ फेंकना है या अलमारी से कुछ निकलना हो या रखना हो आदि तो बस मैं तो झट से अपनी सीट पर चिपका साथ वाले व्यक्ति को सब सौंप देती हूँ और शुक्रिया कह कर मेरा काम खत्म। इस तरह से एक विकलांग व्यक्ति के रूप में मेरा कंफर्ट जोन का क्षेत्र बढ़ा होता जाता हैं। धीरे-धीरे ऐसा भी होता हैं कि दूसरों को काम बताने कि हमारी आदत हो जाती हैं। इससे भी बड़ी बात ये कि ये आदत इतनी सामान्य हो जाती हैं कि हम ये मान लेते हैं कि दूसरे व्यक्तियों को तो ये करना ही चाहिए। हम (एक विकलांग के रूप में) अपनी ओर से यह मान लेते हैं कि हमारे लिए कुछ करना दूसरों कि जिम्मेदारी हैं।

इसका एक और प्रभाव भी पड़ता है कि कभी अगर किसी समूह में कोई अतिरिक्त सहायता न दे या फिर किसी और अज्ञात कारन से मेरा कंफर्ट जोन छोटा हो जाए तो फिर मुझे असहज़ महसूस होती है। मतलब हर बार मैं असामान्य यानि कि सामान्य से अलग ही रह जाती हूँ।

अब देखिए न अगर कोई मदद करे तो भी परेशानी, कोई मदद न करे तो भी परेशानी तो सामान्यता या सहजता से अगर जीना चाहे तो क्या करे? एक विकलांग व्यक्ति के यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। मेरा सुझाव हैं कि इसका समाधान स्वयं विकलांग व्यक्ति के हाथ में हैं। मतलब कि समाज में किसी सुविधा, सहयोग या समावेशन कि बात का आरंभ करने से पहले विकलांग व्यक्तियों को खुद पर काम करना पड़ेगा। यहाँ खुद पर काम करने का अर्थ हैं।

अपनी कार्य शक्ति की पहचान करना। जैसे – क्या-क्या कर सकते हैं और कहाँ-कहाँ सीमाएँ आती हैं। इससे वो अपनी मदद लेने के क्षेत्र को ठीक से जान पाएंगे। अगर जरूरत पर ही मदद लेने के भाव की आदत हो जाए, तो हमारी स्वयं पर निर्भर होने कि स्थिति का बेहतर विकास हो सकेगा।

दूसरी महत्वपूर्ण बात – जब जरूरत न हो तो केवल इसलिए किसी की मदद न लीजिए कि अगर हम मदद लेने से हम मना करेंगे तो सामने वाला बुरा मान जाएगा या वो हमें घमंडी कहेगा। दूसरे लोगों के अच्छे या बुरे लगने के बारे में सोचने से पहले अपने जीवन कि स्थिति के बारे में सोचिए दोस्तों। जो आपकी मदद करने को आतुर हैं उसके लिए वो एक अच्छा अनुभव हो सकता है और शायद उसे दिन में ऐसा एक या दो बार करने को मिले इसलिए उसके मेंटल हेल्थ के लिए ये बेहतर भी हैं। लेकिन आपके लिए ये मदद लेने कि स्थिति दिन में एक या दो बार नहीं बल्कि असंख्य बार हो सकती हैं। ऐसे में बार –बार दूसरों से मदद लेने कि प्रवृति के विकास से आपकी मेंटल हेल्थ के गड़बड़ होने के अवसर जरुर बन जाएंगे। इसके साथ ही आपकी विविध स्थितियों में कार्य करने कि कुशलता भी खराब हो जाएगी। इसमें ज्यादा नकारात्मक प्रभाव हमारे शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पड़ेगा।

स्वयं पर निर्भर रहने कि स्थिति हमें मानसिक संतुष्टि तो देगी ही हमें शारीरिक रूप से फिट भी रखेगी। स्वयं पर निर्भर रहने कि आदत आपके व्यक्तिगत व सामाजिक संबंधों को भी बेहतर बनाने में मदद करेगी। आप चाहे किसी भी प्रकार कि विकलांगता से प्रभावित हो इससे आप घर-परिवार व समाज में ज्यादा सहज व सामान्य महसूस कर पाएंगे। तो आइए समावेशन कि शुरुआत हम खुद को खुद से जानने व जोड़ने से करे।

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