बुरा न मानो होली है। 

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पंकज शर्मा ‘तरुण’।

 

                          व्यंग्य

 

                  बुरा न मानो होली है। 

 

ढोल और होली के हुड़दंगियों की ज्यों ही कान के पास आवाज आई मैं सिहर गया। पत्नी जो दरवाजे के पास बैठी पापड़ खा रही थी। बोली आज धुरेंडी खेलने नहीं जाएंगे। मैं बोला क्यों? वह बोली देखा नहीं पिछले वर्ष पड़ोसी मिश्राजी को लोगों ने गन्दी गटर में किस तरह पटका था और बेचारे को गधे पर उल्टा बिठाकर सिर पर झाड़ू का सेहरा बांधकर गांव भर में घुमाया था।

मैंने कहा-भागवान साल भर में एक बार यह मस्ती भरा रंगीन त्यौहार आता है और तुम हो कि त्यौहार मनाने पर प्रतिबंध लगा रही हो। बातें चल ही रही थी कि दरवाजा पीटने की आवाज ने बातों पर विराम लगा दिया। पत्नी ने वहीं से पूछा कौन है, बाहर से आवाज आई भाभी जी मैं हूं टिल्लू, शर्मा जी को बाहर भेजो। वे बोली क्यों ? वह बोला रंग लगाना है, वे बोली तुम रंग नहीं लगाओगे पिछले साल जैसे मिश्रा जी को रगड़ा था वैसे इस बार इनको रगडऩा चाहते हो। टिल्लू हंसने लगा और कसम खाकर बोला ऐसा कुछ नहीं करेंगे आप दरवाजा तो खोलिए।

पत्नी ने विश्वास करके कुण्डी खोली। बाहर का दृश्य तो देखने योग्य था। सभी के चेहरे पुते हुए थे,एक भी व्यक्ति को मैं पहचान नहीं पा रहा था। उन्हें केवल आवाज से ही पहचाना जा सकता था,उस भीड़ में से आवाज आई शर्मा जी को कुछ मत करो। ज्यों ही गाली और रंग की बौछार हुई पत्नी घर के अन्दर और मैं घर के बाहर। मुझे बड़ी ही इज्जत के साथ उनके द्वारा ईस्ट मैन कलर में पोता गया। मेरे ना नुकुर का असर उन कम्बख्तों पर नहीं होना था सो नहीं हुआ। जैसे मंत्री पर विपक्ष के विरोध का कोई असर नहीं होता। मेरे साथ बाइज्जत पिछले वर्ष जो मिश्रा जी के साथ समारोह किया गया था वही किया। ऐसा लग रहा था,उनकी बातों से जैसे यह कार्यक्रम पहले नहीं था, लेकिन पत्नी की समझदारी भरी बातें सुनकर यह इज्जत अफजाई की जा रही थी।

इस साल किसी और का नंबर था और वे उसी के सहयोग के लिए मुझे लेने आए थे। खैर साहब मैं भी गधे पर ऐसे ही बेैठा रहा, जैसे जबरन किसी को गृहमंत्री का पद छीन कर जेल मंत्री के पद पर बिठा दें। गांव में सभी ओर हमारा और हमारे सहयोगियों का मोहल्ले वार नागरिक अभिनंदन किया गया। पुष्पहारोंं के स्थान पर सेवानिवृत्त चरणदास के हारों से, रंगों के स्थान पर तवे की कालिख से स्वागत किया गया और भांग तथा शराब की बोतलों से स्वल्पाहार किया गया। मुझे उस समय ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैं भी किसी राज्य का मुख्यमंत्री बन गया हूं और यह समारोह मेरी विजय की खुशी में मनाया जा रहा है। शाम हो चली थी सब मदमस्त हो चले थे, गदर्भ राज भी इंसानों की रंगीन संगत से ऊब चुके थे। मैं जैसे ही उनसे अलग हुआ वे धूल में नित्य की भांति लौटने लगे और अपने कंठ से राग गदर्भ निकालकर आनंद में हुई वृद्धि का बखान करने लगे। हम सभी ने एक-दूसरे को होली की शुभकामनाएं दीं और अपने-अपने दड़बे की ओर प्रस्थान कर गए। (विनायक फीचर्स।)

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