आधी आबादी, अधूरी भागीदारी: ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में भारत की गिरती साख।

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✍️ प्रियंका सौरभ, कवयित्री एवं सामाजिक चिंतक।

 

 

 

आधी आबादी, अधूरी भागीदारी: ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में भारत की गिरती साख।

 

 

21वीं सदी की सबसे बड़ी क्रांतियों में एक है—महिलाओं की भागीदारी का बढ़ना। फिर भी, जब वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम ने ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2025 जारी किया, तो भारत का 131वां स्थान यह संकेत देता है कि विकास के तमाम दावों के बावजूद महिला सशक्तिकरण केवल नारों में सिमट कर रह गया है। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में मामूली सुधार हुआ है, पर राजनीतिक प्रतिनिधित्व और आर्थिक भागीदारी में भारत की स्थिति चिंताजनक है।

 

ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स हर वर्ष वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा जारी की जाती है और इसमें चार प्रमुख क्षेत्रों में लैंगिक समानता का मूल्यांकन किया जाता है: आर्थिक भागीदारी और अवसर, शैक्षिक उपलब्धियां, स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा, और राजनीतिक सशक्तिकरण। 2025 की रिपोर्ट में भारत 146 देशों में 131वें स्थान पर है, जबकि 2024 में यह 129वें स्थान पर था। यानी हम दो पायदान और नीचे गिर गए हैं।

 

शिक्षा के क्षेत्र में भारत ने कुछ उपलब्धियाँ ज़रूर हासिल की हैं। प्राथमिक स्तर पर बालिकाओं का नामांकन दर लगभग समान हो चुका है, किंतु उच्च शिक्षा में भागीदारी अभी भी असमान है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल ड्रॉप-आउट रेट लड़कियों में अधिक है, खासकर किशोरावस्था के बाद। शिक्षा सिर्फ स्कूल जाने तक सीमित नहीं है, वह अवसर, आत्मनिर्भरता और निर्णय लेने की क्षमता भी देती है—जो अभी भी बहुसंख्यक लड़कियों के हिस्से नहीं आई है।

 

आर्थिक भागीदारी के मामले में तस्वीर और भी चिंताजनक है। भारत में महिला श्रम बल भागीदारी दर मात्र 25% के आसपास है, जबकि वैश्विक औसत 47% है। भारत की बड़ी आबादी होने के बावजूद महिलाओं का सीमित आर्थिक योगदान देश की उत्पादकता और समावेशी विकास को रोकता है। महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन नहीं मिलता। वे अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती हैं जहाँ उन्हें पेंशन, मातृत्व लाभ या सामाजिक सुरक्षा जैसी कोई सुविधा नहीं मिलती।

 

राजनीतिक प्रतिनिधित्व के क्षेत्र में भारत की स्थिति और भी कमजोर है। यही कारण है कि ग्लोबल इंडेक्स में भारत को सबसे कम अंक राजनीतिक सशक्तिकरण में ही मिले हैं। संसद में महिला सांसदों की संख्या अभी भी 15% से कम है। राज्य विधानसभाओं की तस्वीर भी कुछ अलग नहीं है। पंचायत स्तर पर भले ही 33% आरक्षण है, पर वहाँ भी महिलाओं का नाम तो होता है, पर सत्ता उनके पति या ससुर के हाथों में होती है—यानी “सरपंच पति” जैसे शब्द अब हमारी राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं।

 

भारत की यह स्थिति और भी चिंताजनक हो जाती है जब हम अपने पड़ोसी देशों से तुलना करते हैं। बांग्लादेश (99वां), नेपाल (117वां), और श्रीलंका (123वां) जैसे देश भारत से आगे हैं, जबकि पाकिस्तान (148वां) सबसे नीचे है। बांग्लादेश ने महिला नेतृत्व को राजनीतिक रूप से मजबूती दी है और महिला श्रम भागीदारी भी बेहतर की है। यह बताता है कि संसाधनों से ज़्यादा ज़रूरी है इच्छाशक्ति और सामाजिक सोच में परिवर्तन।

 

राजनीति केवल सत्ता का केंद्र नहीं, बल्कि सामाजिक विमर्श को दिशा देने वाला मंच होता है। जब संसद, विधानसभा और कैबिनेट में महिलाएं होंगी, तभी उनके मुद्दे—महिला सुरक्षा, मातृत्व स्वास्थ्य, शिक्षा, लैंगिक न्याय—वास्तविक प्राथमिकता बन पाएंगे। परंतु, भारत में अभी भी महिला नेताओं को “किसी की पत्नी” या “किसी की बेटी” मानने की मानसिकता हावी है। नेतृत्व की गुणवत्ता से ज़्यादा वंश और पुरुष संरक्षक को देखा जाता है।

 

गाँव और छोटे शहरों में महिलाओं की वास्तविक स्थिति इससे भी ज्यादा जटिल है। आज भी बाल विवाह, दहेज, घरेलू हिंसा और ऑनर किलिंग जैसी घटनाएँ महिला सशक्तिकरण पर कलंक हैं। कितनी ही महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें बैंक खाता, संपत्ति अधिकार या कानूनी संरक्षण के बारे में जानकारी नहीं। सरकारी योजनाएँ जैसे उज्ज्वला या बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ दिखती तो हैं, पर उनका जमीनी असर आंकड़ों में नहीं दिखता।

 

हालाँकि इन तमाम अंधेरों के बीच कुछ रोशनियों की किरणें भी हैं। स्टार्टअप इंडिया और डिजिटल इंडिया जैसे अभियानों के ज़रिए कई महिलाओं ने छोटे-छोटे ऑनलाइन व्यापार शुरू किए हैं। कई महिलाएं खेलों, विज्ञान, और तकनीक के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का नाम रोशन कर रही हैं। पीवी सिंधु, अवनी लेखरा, और इसरो की महिला वैज्ञानिक रितु करिधाल जैसे नाम उदाहरण हैं कि अवसर और विश्वास मिले तो महिलाएं सिर्फ घर नहीं, दुनिया बदल सकती हैं।

 

अब सवाल है—आगे क्या किया जाए? सबसे पहले तो संसद और विधानसभा में महिलाओं को 33% आरक्षण देने का कानून जल्द से जल्द पारित होना चाहिए। यह केवल प्रतिनिधित्व का सवाल नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा से जुड़ा प्रश्न है। महिला श्रम भागीदारी को बढ़ाने के लिए लचीली कार्य नीतियाँ जैसे मातृत्व अवकाश, क्रेच सुविधा, और कार्यस्थल पर लैंगिक सुरक्षा आवश्यक है। लड़कियों की उच्च शिक्षा के लिए विशेष छात्रवृत्ति, हॉस्टल और सुरक्षा की व्यवस्था हो। और सबसे ज़रूरी, समाज को अपनी सोच बदलनी होगी। बेटियों को बोझ नहीं, अवसर मानना होगा।

 

भारत 21वीं सदी में वैश्विक ताकत बनने का सपना देखता है, लेकिन आधी आबादी को हाशिए पर रखकर यह सपना अधूरा है। महिलाओं के लिए सिर्फ सुधारात्मक नीतियाँ नहीं, बल्कि समानता पर आधारित मानसिक क्रांति की ज़रूरत है। ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स कोई विदेशी षड्यंत्र नहीं, बल्कि एक आईना है, जो हमें हमारी असलियत दिखाता है। अब फैसला हमें करना है—सिर्फ उत्सव मनाने हैं या बदलाव लाने हैं।

 

(लेखिका कवयित्री, स्तंभकार व सामाजिक चिंतक हैं। ग्रामीण महिला मुद्दों पर मुखर लेखन करती हैं।)

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