सफलता ही नहीं बच्चों की असफलता के भी साथी बनें माता-पिता।

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डाॅ. फ़ौजिया नसीम शाद।

 

 

 

सफलता ही नहीं बच्चों की असफलता के भी साथी बनें माता-पिता।

 

हर माता-पिता की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि उनके बच्चे पढ़ाई में अव्वल हों और अन्य गतिविधियों में भी सबसे आगे रहें। यह सोच सराहनीय है, लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब बच्चा इन अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाता। ऐसी स्थिति में माता-पिता को निराशा अवश्य होती है, परंतु इस परिस्थिति में उन्हें संयम और संतुलित दृष्टिकोण अपनाना अत्यंत आवश्यक होता है।

अगर माता-पिता बच्चे की असफलता को सहजता से स्वीकार करें तो वह असफलता ही आगे चलकर सफलता का मार्ग बन सकती है। इसके लिए कुछ महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देना आवश्यक है:

 

 सफलता और असफलता को समझें

 

सफलता सभी को पसंद होती है, पर असफलता को कोई स्वीकार नहीं करना चाहता। लोग भूल जाते हैं कि असफलता ही सफलता की पहली सीढ़ी होती है। इस सत्य को पहले माता-पिता को समझना चाहिए और फिर बच्चों को भी यह सिखाना चाहिए कि गिरकर उठना और फिर आगे बढ़ना ही जीवन है।

 

स्वीकारें असफलता की चुनौती को

 

अगर बच्चा असफल हो गया है तो यह संकेत है कि कहीं न कहीं कुछ कमी रह गई है- चाहे वह अध्ययन की रणनीति में हो, समय प्रबंधन में या मानसिक दबाव को संभालने में। ज़रूरत है उस कमी को पहचानने और उसमें सुधार करने की। यह प्रक्रिया स्वयं बच्चे के लक्ष्य की ओर एक बड़ा कदम बन सकती है।

 

असफलता से प्रेरणा लें, निराशा नहीं

 

बच्चे की असफलता को नकारात्मकता से नहीं, बल्कि सकारात्मक दृष्टिकोण से देखें। यह सोचें कि अब किन गलतियों को दोहराना नहीं है और आगे क्या बेहतर किया जा सकता है। प्रेरणा और आत्म-निरीक्षण ही बच्चे को मजबूत बनाते हैं।

 

 उपेक्षापूर्ण व्यवहार से बचें

 

हर माता-पिता को अपने बच्चे की क्षमता का अंदाज़ा होता है, फिर भी परीक्षा या प्रतियोगिता में पिछड़ने पर बच्चों की उपेक्षा करना, उन्हें डाँटना या दूसरों से तुलना करना बेहद अनुचित है। यह उनके आत्मबल को तोड़ देता है। याद रखें, हर बच्चा अलग होता है और उसकी सफलता की परिभाषा भी अलग होती है।

 

 सहर्ष स्वीकारें-हर पहलू को

बच्चों की सफलताओं की तरह ही उनकी असफलताओं और कमज़ोरियों को भी खुले दिल से स्वीकारें। यही एक सच्चे माता-पिता की पहचान है। प्रेम, धैर्य और समझदारी के साथ बच्चों को मार्गदर्शन देना ही उनका संबल बन सकता है।

 

  बच्चों की रुचियों को प्राथमिकता दें

 

अगर बच्चा आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतरता है तो उसकी प्रशंसा करें। यदि नहीं भी उतरता, तब भी उसे समझें, उसकी रुचियों को जानें और उन्हें प्रोत्साहित करें। दोस्त बनकर उसकी समस्याएँ सुनें और उसे यह विश्वास दिलाएँ कि वह जैसा है, आप उससे वैसे ही प्रेम करते हैं।

 

अपेक्षाएँ दबाव न बनें

 

बच्चों से उनकी क्षमता से अधिक अपेक्षाएँ रखना उन्हें मानसिक तनाव और अवसाद की ओर धकेल सकता है। कई बार यह इतना बढ़ जाता है कि वे आत्मघाती कदम भी उठा लेते हैं। बच्चों को आपकी उपलब्धियों की नहीं, आपके प्रेम और समर्थन की ज़रूरत है-बिना शर्त, बिना मापदंड।

अंततःबच्चों की असफलता को उनकी यात्रा का एक हिस्सा मानें, कोई अंतिम परिणाम नहीं। उनका साथ दें, उन्हें स्वीकारें और प्रेरित करें। यदि माता-पिता यह समझने लगें कि बच्चों की हार भी कभी जीत में बदल सकती है, तो यह न केवल बच्चों बल्कि पूरे समाज के लिए एक सकारात्मक बदलाव की दिशा बन जाएगी। (विभूति फीचर्स)

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