फिल्मविधा के प्रयोगधर्मी कलाकार राधाकृष्ण की कलम की कलायात्रा।

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लेखक- आनंद।

फिल्मविधा के प्रयोगधर्मी कलाकार राधाकृष्ण की कलम की कलायात्रा।

आजादी मिलने के बाद की संभावनाओं की चिंता हमारे राष्ट्रनिर्माताओं को थी। यहाँ की भाषा विविधता, सांस्कृतिक बहुलता,धार्मिकता के बीच अनेकता में एकता और आजादी के आंदोलन की पंथनिरपेक्षता को बनाये रखना सबसे बड़ी चुनौती थी। इसी परिप्रेक्ष्य में हम राधाकृष्ण की भूमिका का मूल्यांकन करते हैं। 1940 के रामगढ कांग्रेस के जनसम्पर्क प्रभारी से लेकर आजादी की लड़ाई के प्रकाशनों,भारत छोड़ो आन्दोलन की पृष्ठभूमि में नाटकों का लेखन-निर्देशन और सार्वजनिक मंचन से लेकर साहित्यिक रचनाकर्म के साथ-साथ 1947 से लेकर 1970 तक जनसम्पर्क विभाग की पत्रिका ‘आदिवासी साप्ताहिक’ का संपादन,1954 से 1957 तक आकाशवाणी के ड्रामा प्रोडूयूसर के अलावा वृत्तचित्रों के स्क्रिप्ट लेखन से लेकर जनजागृति के लिये फिल्म विधा के पहले प्रयोगधर्मी के रूप में राधकृष्ण की यात्रा को पाथेय की संज्ञा दिया जाना चाहिए।

राधकृष्ण मात्र लेखनी और कलमकारी तक ही सीमित नहीं रहे,बल्कि कला माध्यमों के समेकित प्रभाव का प्रयोग जनमाध्यम के रूप में कर उन्होंने यह नजीर ज़माने को दी कि ललित कला,चाछुष कला और कलम के मेल से जो आग पैदा होती है वो बुझाये नहीं बुझती।रामगढ कांग्रेस के दिनों में ही राष्ट्रीय स्वाभिमान जागृत करने के उद्देश्य से उनकी लिखी किताब ‘बिहार के चित्रित गौरव’ काफी चर्चित रही।इसका प्रकाशन लहेरियासराय के ‘पुस्तक भंडार’से हुआ था। राधाकृष्णजी की ही देख-रेख में रामगढ कांग्रेस की ‘स्मारिका’ प्रकाशित हुई थी।वर्ष 1923 में काशी नागरी प्रचारणी सभा ने पूरी हिंदी पट्टी में गठित ‘भारती-मंडल’ के द्वारा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र लिखित नाटक‘भारत- दुर्दशा’ के सभी जगहों पर मंचन का आह्वान किया था। ‘भारत-दुर्दशा’ के मंचन का ये प्रभाव था कि मुंगेर के खडगपुर में इसके लिए डॉ. श्रीकृष्ण सिंह को ब्रिटिश हुकूमत ने गिरफ्तार कर सजा दी। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की प्रेरणा और उपेन्द्र महारथी, दीनानाथ वर्मा तथा रामवृक्ष बेनीपुरी के सहयोग से राधाकृष्ण ने भी अपनी लेखनी के साथ साथ नाटकों का लेखन और सार्वजनिक मंचन के द्वारा आमजनों को जागृत करने और आजादी के आंदोलन से जोड़ने का हरसंभव प्रयत्न किया।

राधाकृष्ण को भी शुरू से ही नाटकों का शौक था। वे नाटकों में पार्ट भी करते थे,नाटक लिखते भी थे और जनसहयोग से उनका मंचन भी कराते थे।‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान उन्होंने एक रंगमंचीय नाटक ‘भारत-छोड़ो’ लिखा था।वे उसके मंचन की तैयारियों में लगे थे पर अंग्रेजी हुकूमत ने ऐनवक्त पर नाटक पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इस वजह से ‘भारत-छोड़ो’ नाटक को रांची का रंगमंच नसीब नहीं हो सका।अलबत्ता राधाकृष्णजी को गिरफ्तारी के भय से फरार होना पड़ा,उनके घर को कुर्क किये जाने के हुक्मनामे के बाद नीलामी पर चढा दिया गया।कोर्ट-कचहरी के लंबे चक्कर के बाद 1946 में ‘भारत-छोड़ो’ नाटक का मंचन संभव हो सका।उसी साल यह नाटक ‘पुस्तक-भंडार’ से प्रकाशित भी हुआ।

‘आदिवासी साप्ताहिक’ के सम्पादन के दौरान राधाकृष्ण ने छोटा नागपुर क्षेत्र में लेखकों की एक पीढ़ी तैयार की।देश को एकसूत्र में पिरोये रखने,जनजातीय भाषाओं के देशज साहित्य को हिंदी की मुख्यधारा से जोड़ने के साथ-साथ नवनिर्माण का बेहतर माहौल बनाने और उसमे सबों की भागीदारी के उद्देश्य से ही इस पत्रिका का प्रकाशन रांची से शुरू किया गया था।राधाकृष्ण ने इस पत्रिका के जरिये नवजागरण के इस प्रयास को बखूबी अंजाम देने की कोशिश की।उन्होंने विकास और सामाजिक चेतना के लिए रेडियो-नाटकों की रचनायें की।इस विधा को भी भारत के हिंदी क्षेत्रों में लोकप्रिय बनाने का श्रेय उन्हें मिलना चाहिए।वैसे राधाकृष्ण की कहानियों में हम आजादी मिलने के बाद की उपजी सामाजिक,आर्थिक,नैतिक और राजनैतिक परिस्थितियों को विद्रूपताओं के तौर पर चित्रित पाते हैं।उनके व्यंग्य तत्कालीन स्थितियों के प्रति खबरदार करते मालूम होते हैं।राधाकृष्ण जानते थे कि आज़ादी मिलने के साथ जगी आशायें धूमिल हो रही थीं। राजनैतिक दलों के क्षुद्र स्वार्थों,आपसी प्रपंचों के साथ राधाकृष्ण आम जनता की संवेदनहीनता पर भी करारे व्यंग्य चस्पां करते हैं।ऐसी स्थिति में भी वे नाटकों,रेडियो-नाटकों/रूपकों और सिनेमा के माध्यम से आम अवाम को जागृत करते दिखाई देते हैं। गोया…बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी……’. रामगढ़ कांग्रेस के समय फिल्मांकन के लिए मद्रास की ‘डॉक्यूमेंटरी फिल्म्स लि.’ के मैनेजिंग डाइरेक्टर ऐ.के.चेट्टियार रांची आये थे।गांधीजी पर उन्हें एक डॉक्यूमेंटरी बनानी थी। गांधीजी पर आधरित इस फिल्म को चेट्टीयार ने 21 भाषाओं में बनाया।हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में 3000 फुट लेंथ की फिल्म बनी जबकि इस फिल्म का यूरोपियन वर्सन 12000 फुट लेंथ का बना।गांधीजी को केन्द्रित कर बनी इस डॉक्यूमेंटरी का ओपनिंग शो अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट के समक्ष वाशिंगटन में होना था।बतौर रामगढ़ कांग्रेस के जनसम्पर्क प्रभारी राधाकृष्ण ने इस फिल्म के फिल्मांकन में सहयोग किया,साथ ही इसकी हिंदी स्क्रिप्ट तैयार करने में मुख्य भूमिका निभाई।इससे पहले से ही वे मुम्बईया फिल्म जगत से जुड़े थे।वे 1938 में ही मुम्बई के ‘सागर मूवीटोन’ से जुडकर स्क्रिप्ट लेखन करने लगे थे।‘सागर मूवीटोन’ रामानंद सागर के पिता मोती सागर की फिल्म कंपनी थी.

1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद अंतरिम सरकार का गठन हुआ। डॉ. श्रीकृष्ण सिंह मुख्यमंत्री( तब बिहार के मुख्यमंत्री प्रधानमन्त्री कहे जाते थे) बने,आचार्य बदरीनाथ वर्मा को गृह(राजनीति) विभाग( अब का जनसम्पर्क विभाग) की जिम्मेवारी दी गयी।तात्कालिक समस्याओं के साथ-साथ नवनिर्माण में सबकी भागीदारी और सबको साथ लेकर चलना राज्य के नेतृत्व के लिए चुनौतीपूर्ण था।ऐसी परिस्थितियों में राज्य सरकार ने रामधारीसिंह ‘दिनकर’, रामवृक्ष’बेनीपुरी’,राधाकृष्ण,उपेन्द्र ‘महारथी’ सहित लेखकों और बुद्धिजीवियों की सेवाओं के सार्थक उपयोग का निर्णय लिया।गृह(राजनीति) विभाग का नाम बदलकर सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग किया गया।सम्भवतः लोक कल्याणकारी राज्य के परिप्रेक्ष्य में लोक-सम्पर्क की नयी अवधारणा का यह सफल प्रयोग साबित हुआ। पटना से “बिहार-समाचार’ एकसाथ हिंदी,उर्दू और अंग्रेज़ी में प्रकाशित होने लगा था,दुमका से संताली भाषा में “होड़-सोम्वाद” और रांची से “आदिवासी साप्ताहिक” छपने लगा जिसके सम्पादक राधाकृष्ण बनाये गए।जनमाध्यमों के प्रभाव से नवनिर्माण का माहौल तैयार करने के लिए जनसम्पर्क विभाग में बाकायदा फिल्म और गीत-नाटक के प्रभाग स्थापित किये गए।राधाकृष्ण लगातार विभागीय गीत-नाटक प्रभाग के नाटकों के लिए लिखते रहे।इस दौरान आकाशवाणी के रेडियो-नाटकों के लिए भी लिखने का दौर जारी रहा।

पचास के दशक में हिंदी के जानेमाने लेखकों की टीम बतौर ड्रामा प्रोड्यूसर आकाशवाणी से जुड़ी,इसमें अमृतलाल नागर,इलाचन्द्र जोशी, सुमित्रानंदन पन्त,भगवतीचरण वर्मा,राधाकृष्ण जैसे लोग शामिल रहे।उन दिनों स्वस्थ सुरुचिपूर्ण मनोरंजन के साथ-साथ राष्ट्रनिर्माण के उद्देश्यों के निमित्त मूर्धन्य लेखकों की सेवाओं का बेहतर उपयोग राष्ट्रीय प्रसारणों में किस तरह से किया गया इसका नए सिरे से मूल्यांकन किया जाय तो निश्चित ही हमें राधाकृष्ण की उस छवि को देखने का मौका मिलेगा जिसने भारत में हिन्दी रेडियो नाटकों की विधा को शुरुआत के दौर में एक लोकग्राह्य माध्यम के रूप में स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाई।

राधाकृष्ण वे पहले व्यक्तित्व हैं जिन्होंने तत्कालीन बिहार सूबे में सशक्त जनमाध्यम के रूप में सिनेमा का प्रयोग किया।राधाकृष्ण को सरकार के जनसम्पर्क विभाग के लिए फिल्में बनवाने का जिम्मा दिया गया।कोलकाता की फिल्म कंपनी के साथ जनसंपर्क विभाग ने डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनवाने का निर्णय लिया तो राधाकृष्ण ने इसकी पटकथा लिखी। ‘आदिवासियों का जीवन श्रोत’ नामक इस डॉक्युमेंटरी फिल्म के निर्देशक थे मशहूर फ़िल्मकार ऋत्विक घटक। सिनेमा के इतिहास का अवलोकन करने से पता चलता है कि ‘आदिवासियों का जीवन श्रोत’ ऋत्विक घटक की पहली फिल्म है।अपनी आर्थिक मजबूरियों के कारण ऋत्विक घटक ने ओउरोरा फिल्म्स के लिए इस फिल्म को बनाना शायद स्वीकार किया था लेकिन इसके तुरंत बाद ही ऋत्विक घटक ने जन्सम्पर्क विभाग के लिये दूसरी डॉक्यूमेंटरी भी बनायी जिसका शीर्षक था- ‘बिहार के दर्शनीय स्थल’. इस फिल्म की शूटिंग राजगीर, नालंदा, विक्रमशिला, पटना, वैशाली, बोधगया, रांची सहित कई जगहों पर हुई थी। इसकी स्क्रिप्ट भी राधाकृष्ण ने ही लिखी जिसे बाद में पटना से प्रकाशित हरिजन सेवक संघ की पत्रिका ‘अमृत’ के जून 1955के अंक में प्रकाशित किया गया। फिल्मों को लेकर ऋत्विक घटक के छोटानागपुर के जनजातीय क्षेत्रों से जुड़ाव का यह पहला उदाहरण है।बाद में ऋत्विक घटक ने अपनी फिल्म ‘अजांत्रिक’, ‘सुवर्णरेखा’, कोमल गंधार’ का भी फिल्मांकन छोटानागपुर के जनजातीय इलाकों में किया। ‘अजान्त्रिक’ पूरे विश्व-सिनेमा के लिये एक धरोहर है। इसकी पूरी पृष्ठभूमि ‘आदिवासियों का जीवन श्रोत’ की शूटिंग के दौरान ही बनी।ऋत्विक घटक ने अपने संस्मरणों,पत्रों में इसका उल्लेख भी किया है।इसके निर्माण में राधाकृष्ण की बतौर स्क्रिप्ट-राइटर अहम भूमिका रही।बाद में राधाकृष्ण इन डॉक्यूमेंटरी फ़िल्मों को अंगरेजी में डब कराने के लिये भी प्रयासरत रहे। रांची में ही रह रहे फिल्मकार हेमेन गांगुली को उन्होंने इन फिल्मों के प्रिंट्स हासिल कराये।लेकिन हेमेन गांगुली इसकी डबिंग नहीं करा सके और उनके परिवार के लोग भी उन प्रिंटों को संभाल कर नहीं रख सके।आज उन दोनों डॉक्युमेंटरी फ़िल्मों के प्रिंट उपलब्ध नहीं हैं।

बाद में जनसम्पर्क विभाग में स्टीनबेक एडिटिंग मशीन लगी और स्वतंत्र रूप से फिल्में बनाई जाने लगीं तब राधाकृष्ण ने कई पटकथाएं लिखी जिन पर फ़िल्में बनीं। ‘कल जो अछूत थे’, ‘अधिक अन्न उपजाओ’, ‘पाताल का मोती’, ‘मिटटी का सिंगार’, ‘महाकवि कालिदास’,’जंगल के पंछी’,’पाटलिपुत्र’, ‘नयी नगरिया’, ‘राधा का गाँव’ जैसी उनकी कई पटकथाएँ विभिन्न जगहों से प्रकाशित भी हुईं जिनपर विभाग ने फिल्में भी बनाई।

राधाकृष्ण अपने सरल शब्दों को बगैर किसी बनावटी आवरण के आम लोगों के बोलचाल की तरह इस्तेमाल करते हैं। सरकारी फिल्मों-नाटकों,लेखों और गीतों के माध्यम से वे लोगों तक उनके फायदे पहुंचाने वाले हरकारे दिखते हैं वहीं उनकी कलम दूसरी ओर स्वछन्द रूप से बड़े-बड़ों का पर्दाफाश करती है। बेलौस और बेख़ौफ़ नजरिए वाले राधाकृष्ण ने आज़ादी की लड़ाई अपने तरीके से लड़ी। गंगाशरण सिंह के साथ क्रान्तिकारी साथियों को रांची में हथियार थमाने,अपनी पत्नी के साथ मिलकर क्रान्तिकारियों को पनाह देने से लेकर क्रान्तिकारी लेखन तक का काम करने का सबब उनमें रहा।शायद यही कारण रहा कि एक तरफ जहाँ पढ़े-लिखे साक्षर लोगों को उनकी रचनाएँ पूरी गंभीरता से आगाह करती रहीं वहीं आम लोगों को उनके अधिकारों-कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाने के लिये राधाकृष्ण सिनेमा के जनमाध्यम को बिहार-झारखण्ड में लोकप्रियता दिलाने वाले पहले व्यक्ति दिखाई देते हैं।( लेखक सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग ,झारखण्ड, में उप निदेशक के रूप में कार्यरत हैं) (विभूति फीचर्स)

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