उपन्यास मां – भाग 12 संजीवनी बूटी।

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ब्यूरो छत्तीसगढ़ः सुनील चिंचोलकर।

रश्मि रामेश्वर गुप्ता, बिलासपुर छत्तीसगढ़।

 

          उपन्यास मां – भाग 12 संजीवनी बूटी।

जंगल का दृश्य देखते-देखते जंगल पार हुआ, कुछ छोटे-छोटे घर आने लगे। कुछ दूर रास्ते में रेत बिछी हुई थी। बाईक की स्पीड धीमी थी रास्ता ऐसा था कि रास्ते के एक तरफ गहराई में तालाब और दूसरे तरफ खाई। तालाब इतना खूबसूरत था कि मिनी के मुँह से निकल गया- “देखिए! कितना सुन्दर तालाब।”

पतिदेव बड़ी सावधानी से रेत पर बाईक चला रहे थे। जैसे ही उनका ध्यान तालाब की ओर गया दोनो गिरे धड़ाम से।

गनीमत स्पीड कम थी तो दोनो को अधिक चोट नही आई। मिनी को तो चोट लगी कमर में और पतिदेव् के पैर छिल गए। जब खाई की ओर नजर गई तो मिनी ने ईश्वर को धन्यवाद दिया, गनीमत दोनो रास्ते में ही गिरे। कही खाई में गिरे होते तब क्या होता ये सोचकर दोनो के दर्द भी गायब हो गए। बाईक उठाये, दोनो चलने लगे। फिर सीमेंट की पक्की सड़क आई। अब दोनो गांव में प्रवेश कर चुके थे। वैद्य का घर आया। दोनो की जान में जान आई।

मिनी ने वैद्य को सारी बाते बताई। वैद्य ने मां के लिए जैसे संजीवनी बूटी दे दी। मां के पैरो में लगाने के लिए जड़ी बूटी दिए जिसे पीसकर सरसों के तेल में मिलाकर सुबह शाम मालिश करना था। पेट के लिए भी दवाइयां दी जिसे उबालकर प्रतिदिन पिलाना था। दवाइयां लेकर शाम होने से पहले ही दोनो घर पहुँचे।

दूसरे दिन से ये दवाइयां भी शुरू हो गई। मां को जब से बेल का बटन दे दिए थे। मां को पता ही नही होता था कि वो रात में कितने बार बेल का बटन दबाई ? मां का जब मन लगे बेल का बटन दबा देती थी। मिनी को रात में कई बार उठकर माँ के पास आना होता था। नींद तो जाने कब से आखों से दूर जा चुकी थी और उनकी जगह आँसुओ ने ले रखी थी। दिन-रात बस एक ही चिंता सताती थी कि मां के पैर कब सही होंगे।

दिन भर काम और रात में नींद भी नहीं। घर में सभी को मिनी की चिंता सताती थी। आखिर माँ तो सही हो रही है पर मिनी का क्या होगा ये सोचकर पतिदेव कभी सोचते चलो आज मिनी का ध्यान तकलीफों से हटाने के लिए इनको कही घुमा लाएं। जैसे ही मिनी तैयार होकर सीढ़ी से उतरती, मां की आवाज़ आती- “मिनी! देख तो मेरा बिस्तर खराब हो गया।” मिनी का ध्यान फिर घूमने से हटकर मां की तकलीफों पर चला जाता। ऐसा कई बार होता था। मिनी बिस्तर साफ करती फिर अकेले में अंधेरे में जाकर खूब रोती। कभी छत में बैठकर रोती। कभी बेटा आ जाता पास में तो जल्दी से आंसू पोछती फिर भी बेटा जान जाता था। कुछ देर मिनी के पास बैठता फिर पूछता- “मम्मी ! आप अंधेरे में क्यों बैठे हो? चलिए नीचे।”

माँ के सारे दर्द मिनी के हो चुके थे। दो दिन भी अगर बिस्तर में रहने की नौबत आ जाए तो कितना मुश्किल हो जाता है । मां को बिस्तर पर रहते 9 महीने हो चुके थे।

मिनी दिन-रात यही सोच-सोचकर दुखी होती कि इतने महीने एक ही स्थिति में रहना , बिस्तर पर लेटे रहना, एक ही कमरे में रहना मां के लिए कितना दुःखदाई था सब कुछ और मां को इस हाल में तड़पते देखना मिनी के लिए कितना दुःखदाई था पर बेटे से कहे भी तो क्या कहे पर बच्चों में भावनाएं होती हैं। वे बिना कहे भी बहुत कुछ समझते हैं। बेटा बड़ा होने के कारण अधिक समझता था। बेटी छोटी होने से मां के दर्द को , नानी के दर्द को, समझती तो थी पर पास आके कुछ बोलने की हिम्मत नही करती थी।…………….क्रमशः

 

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