
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’, वाराणसी, उ. प्र.।
शहर में नए आए हैं
न जनसंपर्क है कोई
न जन-मन जान पाए हैं
शहर में नए आए हैं।
न कोई खेत है अपना
न कोई खाट है अपनी,
न कोई बाट अपना है
न कोई हाट है अपनी,
न कोई छान या छप्पर
किसी भी जगह छाए हैं।
शहर में नए आए हैं।
मुहल्ले में बनी कोई
नहीं पहचान है अबतक,
न बूढ़ों, समवयस्कों का
कहीं अहसान है अबतक,
न मंदिर-घाट का दर्शन
बँटे परसाद खाए हैं।
शहर में नए आए हैं।
न परिचय का गढ़ा पत्थर
न गलियाँ भी हुईं परिचित,
न अविहित बात है कोई
न कोई तथ्य है अविजित,
न गोष्ठी में, न मंचों पर,
कहीं नवगीत गाए हैं।
शहर में नए आए हैं।