
डा. कृष्णकुमार नाज
‘साक्षात्कार के बीच हिंदी गजल’ :
हिंदी गजल के शोधार्थियों हेतु उपयोगी पुस्तक
वह ज़माना और था, जब ग़ज़ल बादशाहों और नवाबों के दरबारों में क़ैद होकर रहती थी। जब ग़ज़ल पर घुँघरुओं का क़ब्ज़ा था। जब ग़ज़ल या तो तवायफ़ों की महफि़लों में गाई जाती थी या मधुर कंठ वाले फ़क़ीरों के द्वारा सार्वजनिक की जाती थी, जो दरवाज़े-दरवाज़े जाकर भिक्षा माँगकर अपना पेट पालते थे। दरबारों में सजने वाली महफि़लों में दरबारों के आत्मीयजन ही हिस्सा लेते थे। बाहरी दुनिया से ग़ज़ल का कोई सरोकार नहीं था और उसका एकमात्र उद्देश्य ‘माननीयों’ का मनोरंजन करना होता था। धीरे-धीरे समय बदला, बादशाहतें गईं तो दरबार ख़त्म हुए, नवाबियत गई तो रियासतें समाप्त हुईं और ग़ज़ल समाज के बीच आई।
ग़ज़ल समाज के बीच आने से यह हुआ कि उसमें समाज के सुख-दुख शामिल होते गए। शायरों ने भी भाषा और भाव की दृष्टि से स्वयं में परिवर्तन किया, परिणामस्वरूप ग़ज़ल की भावभूमि बदली। लेकिन ग़ज़ल का मुख्य विषय महबूब के इर्दगिर्द ही घूमता रहा। आज भी परंपरागत ग़ज़ल की हम बात करें तो उसका अधिकांश नारी सौंदर्य का बखान ही करता नज़र आता है। हाँ, उर्दू ग़ज़ल की बहुत पुरानी और समृद्ध परंपरा है। सैकड़ों साल का समय किसी भी विधा के परिपक्व होने के लिए पर्याप्त है। वहाँ हमें भाषा और व्याकरण का भरपूर कसाव मिलता है, क्योंकि वहाँ गुरु-शिष्य परंपरा आज भी क़ायम है।
समय के साथ-साथ ग़ज़ल ने हिंदी में प्रवेश किया। हिंदी कवियों द्वारा ग़ज़लें कही जाने लगीं। उसका नतीजा यह हुआ कि ग़ज़ल भाषाई दृष्टि से तो सरल हुई ही, उसमें भरपूर ढंग से समाज की हिस्सेदारी हो गई। हिंदी ग़ज़ल में भारतीय संस्कृति समाविष्ट हुई, भारतीय बिंब और प्रतीकों का प्रवेश हुआ, भारतीय मुहावरे उसमें आए और वह पूर्णरूप से भारतीय हो गई। लेकिन, यहाँ तक पहुँचने में हिंदी ग़ज़ल को बहुत-सी कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा। आरंभ में तो उर्दू क्षेत्र के रचनाकारों ने न हिंदी ग़ज़ल को स्वीकारा, न हिंदी ग़ज़लकारों को। उसका कारण यह था कि ग़ज़ल को उर्दू की ही विधा समझा जाता था। दूसरा कारण था ग़ज़ल के व्याकरण विषयक त्रुटियाँ। मैं स्वयं भी भुक्तभोगी हूँ, जब आकाशवाणी के एक हिंदी कार्यक्रम में वहाँ के अधिकारी द्वारा ग़ज़ल पढ़ने से मना कर दिया गया था। उनका कहना था कि कार्यक्रम हिंदी का है और ग़ज़ल उर्दू की विधा है। तब मुझे गीत पढ़कर काम चलाना पड़ा। आज भी मैं देखता हूँ कि उर्दू क्षेत्र के कई रचनाकार हिंदी ग़ज़ल के परिपक्व शेर को उर्दू के पाले में रखते हैं और व्याकरण की दृष्टि से कमज़ोर शेर को हिंदी ग़ज़ल का बताते हुए उसे ख़ारिज़ कर देते हैं। बात सही भी है, यदि कोई दर्ज़ी शर्ट कहकर आपको कुर्ता थमा दे, तो क्या आप उसे शर्ट के रूप में स्वीकार करेंगे? कदापि नहीं। यही स्थिति हिंदी ग़ज़ल के साथ है। यदि हिंदी ग़ज़ल को विकास के मार्ग पर अग्रसर देखना है तो इस स्थिति से बचना होगा।
डा. सीमा विजयवर्गीय द्वारा रचित ‘साक्षात्कार के बीच हिंदी ग़ज़लकार’ ऐसी पुस्तक है, जिसमें हिंदी ग़ज़ल के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। इस पुस्तक में देश के लब्धप्रतिष्ठ 15 हिंदी ग़ज़लकारों- सर्वश्री बालस्वरूप ‘राही’, कृष्ण कुमार ‘बेदिल’, डा. कृष्णकुमार ‘नाज़’, ज्ञानप्रकाश ‘विवेक’, अशोक रावत, देवेंद्र माँझी, विज्ञानव्रत, माधव कौशिक, शरद तैलंग, लवकुमार प्रणय, मासूम ग़ाजि़याबादी, ओमप्रकाश यती, विजय स्वर्णकार, देवमणि पांडेय और प्रो. वशिष्ठ अनूप- के साक्षात्कार सम्मिलित हैं।
सुप्रतिष्ठ कवि श्री बालस्वरूप ‘राही’ हिंदी ग़ज़ल के कलापक्ष व भाषापक्ष पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं- ‘‘ग़ज़ल का मुहावरा आमूलचूल तो बदल नहीं सकते, उसे इश्क़-मुहब्बत की चाशनी से पूरी तरह ख़ारिज़ तो बना नहीं सकते, फिर भी आज की हिंदी ग़ज़ल में प्रेमिका से अनुरोध के स्थान पर वर्तमान जीवन की विसंगतियों के विरोध को ज़्यादा अहमियत दी जा रही है। ग़ज़ल उर्दू की धरोहर है, इसलिए उसमें उर्दू का माहौल पाया जाना सहज स्वाभाविक है, परंतु युवा पीढ़ी ग़ज़ल की भाषा में हिंदी की चाशनी घोल रही है। हिंदी के ज़्यादातर ग़ज़लकार ग़ज़ल में उर्दू से अधिक हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं। आजकल हिंदी ग़ज़ल का शोर मचा हुआ है। हिंदी के युुवा कवि अपनी ग़ज़लों में हिंदी की प्रकृति का रस घोल रहे हैं। हिंदी ग़ज़ल का चरित्र उर्दू ग़ज़ल से भिन्न होता जा रहा है। हिंदी ग़ज़ल में गीतात्मकता भी आती जा रही है। ग़ज़ल में आमतौर पर एक-एक शेर का अपना अलग वजूद होता है। परंतु नई पीढ़ी की हिंदी ग़ज़ल में भावों की निरंतरता देखी जा रही है। ग़ज़ल नज़्म का रूप लेती जा रही है।’’
सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार कृष्ण कुमार ‘बेदिल’ साहब ग़ज़ल को समाज का दर्पण स्वीकार करते हुए कहते हैं- ‘‘समकालीन हिंदी ग़ज़ल पूँजीवाद, भूमंडलीकरण और सामाजिक-राजनीतिक कुचक्र के शिकार किसान, मज़दूर, स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, वृद्धजन, युवा और बच्चे आदि सभी की आशा-आकांक्षा औैर पीड़ाओं को न सिर्फ़ रेखांकित कर रही है, अपितु समकालीन कविता के संस्कारों से पोषित होकर वह अन्याय के खि़लाफ़ एकजुट होने का संदेश दे रही है। इसलिए समकालीन ग़ज़ल आज के समाज का दर्पण है।’’
हिंदी ग़ज़ल की आलोचना के प्रश्न पर डा. कृष्णकुमार ‘नाज़’ कहते हैं- ‘‘पहली बात तो यह है कि हिंदी ग़ज़ल के आलोचकों में अधिकतर ऐसे हैं, जो ग़ज़ल के शिल्प से परिचित नहीं हैं। वे स्वयं भी गुनगुनाकर ग़ज़ल कहने के आदी हैं। ऐसे में वे ग़ज़ल के अन्य पहलुओं पर तो लिख लेते हैं, लेकिन शिल्प के पहलू को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं। शिल्प की जानकारी का अभाव स्वस्थ आलोचना में बाधक है। दूसरी बात यह है कि राजनीतिक गुटों से संबद्ध ग़ज़लकार आपस में ही एक-दूसरे की पीठ थपथपाने में लगे हैं। ऐसी स्थिति में विधा को कहीं न कहीं हानि तो पहुँचेगी ही। ऐसे रचनाकार जनवाद के नाम पर खुरदरी नारेबाज़ी ग़ज़ल में प्रयुक्त कर रहे हैं, जो न मन को लुभा पाती है, न मस्तिष्क को। इसलिए हिंदी ग़ज़ल की स्वस्थ आलोचना के लिए उन रचनाकारों को सामने आना होगा जो उसके शिल्प से भी परिचित हैं और किसी राजनीतिक गुुट से संबद्ध नहीं हैं। हिंदी ग़ज़ल की निष्पक्ष आलोचना की अभी आवश्यकता है।’’
प्रसिद्ध ग़ज़लकार एवं आलोचक श्री ज्ञानप्रकाश ‘विवेक’ हिंदी ग़ज़ल के विकास क्रम में वर्तमान ग़ज़ल की स्थिति के संबंध में कहते हैं- ‘‘ग़ज़ल दुष्यंत से पहले भी लिखी जा रही थी। भारतेंदु के बाद शमशेर ने हिंदी ग़ज़ल के प्रति रुझान पैदा किया, लेकिन दुष्यंत की ग़ज़लों ने चमत्कारिक रूप से हलचल पैदा की। दुष्यंत की ग़ज़लों की एक ख़ूबी यह भी थी कि इन ग़ज़लों के शेर ‘याद’ होते गए। ऐसा लगा जैसे ये शेर हमारे लिए कहे गए हैं।’’
हिंदी ग़ज़ल के वर्तमान स्वरूप के मद्देनज़र इसके भविष्य के प्रश्न पर प्रसिद्ध हिंदी ग़ज़लकार श्री अशोक रावत कहते हैं- ‘‘किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि छंद किसी विचार को श्रेष्ठ नहीं बनाता। यह छंद का दायित्व नहीं है कि विचार को श्रेष्ठ बना दे। श्रेष्ठ विचार बिना छंद के भी अभिव्यक्त होते रहे हैं। छंद विचार में सौंदर्य की स्थापना करता है। यह सौंदर्य ही एक रचनाकार और पाठक के बीच पुल का काम करता है। जब यह पुल टूट जाता है तो दोनों का रिश्ता भी कमज़ोर पड़ जाता है।’’
ग़ज़ल लेखन में भाव और शिल्प के सामंजस्य के प्रश्न पर प्रख्यात ग़ज़लकार श्री देवेंद्र माँझी का कहना है- ‘‘भाव के साथ शिल्प का सामंजस्य होना ही चाहिए। शिल्प की चौखट में ही भावों के शाब्दिक दरवाज़े (किवाड़) चढ़ाए अथवा लगाए जाने चाहिएँ। जैसे चौखट और किवाड़ में सामंजस्य न होने पर मकान की सुरक्षा पर प्रश्नचिह्न लग जाता है, ठीक उसी प्रकार ग़ज़ल में शिल्प और भाव में सामंजस्य का अभाव आशंकाओं की अनेक उँगलियाँ उठा देता है।’’
छोटी बहरों में अपनी पूरी बात कहने के लिए प्रसिद्ध श्री विज्ञान व्रत के समक्ष जब हिंदी ग़ज़ल के वर्तमान स्वरूप और उसके भविष्य के बारे में प्रश्न रखा जाता है, तो वह बड़ी बेबाकी से जवाब देते हैं- ‘‘हिंदी ग़ज़ल श्री बलवीर सिंह ‘रंग’ से प्रारंभ हुई तथा सूर्यभानु गुप्त और बालस्वरूप राही ने इसे नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। आज भी कुछ समर्पित ग़ज़लकार जैसे ज्ञानप्रकाश ‘विवेक’, कमलेश भट्ट ‘कमल’, अश्वघोष, डा. कृष्णकुमार ‘नाज़’, अनिरुद्ध सिन्हा, हस्तीमल हस्ती, ओमप्रकाश यती, माधव कौशिक, अशोक रावत, विज्ञान व्रत, डा. भावना, डा. सीमा विजयवर्गीय आदि हिंदी ग़ज़लें कहने में न केवल संलग्न हैं, अपितु ग़ज़ल की समृद्धि के लिए समर्पित हैं।’’
हिंदी ग़ज़ल के विकास में मीडिया के योगदान के विषय में श्री माधव कौशिक कहते हैं- ‘‘किसी भी साहित्यिक विधा के प्रचार-प्रसार में मीडिया असर तो डालता है, पर प्रिंट मीडिया का ज़्यादा योगदान है इसमें। इलेक्ट्रानिक मीडिया का इतना नहीं। इलेक्ट्रानिक मीडिया पर अब भी व्यावसायिकता हावी है।’’
हिंदी ग़ज़ल के कला व भाषापक्ष पर प्रकाश डालते हुए श्री शरद तैलंग का कहना है कि ग़ज़ल में हिंदी, उर्दू या अन्य भाषा के आधार पर भेद किया जाना भी संभव नहीं है। जिसे हम हिंदी ग़ज़ल कहते हैं, उसमें भी अनेक उर्दू के शब्द मौजूद रहते हैं और इसी तरह उर्दू ग़ज़ल में भी, ग़ज़ल तो ग़ज़ल ही है।
हिंदी ग़ज़ल की प्रकृति व प्रवृत्ति पर प्रकाश डालते हुए श्री लवकुमार प्रणय कहते हैं- ‘‘हिंदी की ग़ज़ल का मतलब यह नहीं कि उसमें हिंदी के कठिन शब्दों का ही इस्तेमाल किया जाए। जिस शब्द को आम जनता समझ रही है, उसका प्रयोग बिना किसी हिचकिचाहट के हिंदी ग़ज़ल में करना चाहिए। सिर्फ़ कठिन शब्दों से हिंदी ग़ज़ल नहीं बनती। … इसकी एक अपनी शैली है, अपनी बुनावट और बनावट है।’’
पारंपरिक और वर्तमान ग़ज़ल के अंतर के प्रश्न पर श्री मासूम ग़ाजि़याबादी कहते हैं- ‘‘पारंपरिक ग़ज़ल लिखी तो माशूका के लिए जाती थी, लेकिन सुुनने वाला उसे सुनकर ऐसा महसूस करता था, गोया ईश्वर की प्रार्थना हो रही है। रिवायती ग़ज़ल जहाँ महबूब के ज़ुल्फ़ो-रुख़सार की तारीफ़ किया करती थी, वहाँ आज नई ग़ज़ल यतीमों की बेबसी और बेवा की कराहों की आवाज़ बनकर उभरी है।’’
हिंदी ग़ज़ल के वर्तमान स्वरूप और इसके भविष्य के प्रश्न पर श्री ओमप्रकाश यती का मानना है- ‘‘हिंदी ग़ज़ल का वर्तमान स्वरूप समकालीन कविता का ही एक विशिष्ट रूप है, जिसमें कविता की सभी प्रवृत्तियाँ और सरोकार मौजूद हैं। हिंदी ग़ज़ल के लिए अब कोई विषय निषिद्ध नहीं है। इसका फ़लक बहुत विस्तृत है।’’
हिंदी ग़ज़ल के वर्तमान स्वरूप और इसके भविष्य के प्रश्न पर श्री विजय स्वर्णकार का मानना है कि हिंदी में बड़ा शायर पैदा कर सकने की क्षमता और संभावनाएँ हैं। इससे कम लक्ष्य को लेकर तो लिखने का औचित्य भी नहीं है। बेशक हिंदी ग़ज़ल का नज़रिया और सरोकार अलग हैं और रहेंगे।
हिंदी और उर्दू ग़ज़ल के व्याकरण व शिल्प की ख़ूबियों के प्रश्न पर श्री देवमणि पांडेय का मानना है कि यह सच है कि ग़ज़ल उर्दू से हिंदी में आई है। इसलिए उर्दू ग़ज़ल के व्याकरण और शिल्प का अनुपालन ज़रूरी है। हाँ, ग़ज़ल के इस फ़्रेम में बात अपनी होनी चाहिए।
हिंदी ग़ज़ल की अंतर्वस्तु और शिल्प के महत्त्व के प्रश्न पर प्रो. वशिष्ठ अनूप शिल्प को द्वितीय स्थान पर रखते हुए कहते हैं- ‘‘हमको जो कहना है, अपनी बात को अपनी पूरी ताक़त के साथ कहेंगे। उसके लिए अगर ग़ज़ल का शिल्प कहीं-कहीं चरमराए कबीर की तरह दरेरा देना पड़े तो देंगे, लेकिन कथ्य के साथ समझौता नहीं करेंगे। जिनका कोई सामाजिक सरोकार नहीं है, वह एक कारीगर की तरह फ़्रेम बनाकर उसमें कुछ भी फि़ट कर देते हैं। उनके लिए शिल्प महत्त्वपूर्ण होता है। हमारे लिए कथ्य महत्त्वपूर्ण है, तो हम तो अंतर्वस्तु को ही अधिक महत्त्व देते हैं और देंगे।’’
इस पुस्तक में हिंदी ग़ज़ल से संबंधित बहुत-से महत्त्वपूर्ण प्रश्न और ग़ज़लकारों द्वारा दिए गए उत्तर उपलब्ध हैं। इसलिए यह पुस्तक हिंदी ग़ज़लकारों के लिए तो उपयोगी है ही, शोधार्थियों के लिए भी बहुत उपयोगी है। मैं जानता हूँ, डा. सीमा विजयवर्गीय ने इस पुस्तक को साहित्यिक-समाज तक लाने में अथक परिश्रम किया है। वह इसमें सफल भी हुई हैं, इसके लिए उन्हें बधाई और शुभकामनाएँ। आशा करता हूँ कि वह आगे भी हिंदी ग़ज़ल के उन्नयन हेतु प्रयासरत रहेंगी।
समीक्षक : डा. कृष्णकुमार ‘नाज़’
पुस्तक : साक्षात्कार के बीच हिन्दी ग़ज़लकार
लेखिका : डा. सीमा विजयवर्गीय
पृष्ठ सं. : 176
प्रकाशन : श्वेतवर्णा प्रकाशन, नोयडा
मूल्य 299/- रुपये