
काव्य रत्न डॉ0 रामबली मिश्र, वाराणसी।
समुद्र की लहरें
लहरें उठकर सिंधु से, सतत मचाती शोर।
हाहाकार मचा दिखे, भागें सब चहुँओर।।
कोई रुकता स्नान कर, होता अतिशय मस्त।
घबड़ा कर कुछ भागते, होते भय से ग्रस्त।।
कुछ लहरों को पूज कर, खुद को समझें धन्य।
भाग्य मानकर खुश सहज, दिखते अति चैतन्य।।
छिपे सिंधु में रत्न हैँ, आ सकते कुछ पास।
इसी भाव से कुछ खड़े, बने लहर का दास।।
आना जाना नियति का, यह निश्चित है खेल।
लहरें आतीं लौटतीं, यही प्राकृतिक मेल।।
लहरों से ही सिंधु को, करते रहो प्रणाम।
लेना आशीर्वाद नित, यह लक्ष्मी का धाम।।
लहरें शिक्षा दे रहीं, मत घबड़ाओ मीत।
नहीं भयंकर कुछ यहाँ, सब में मोहक गीत।।
जीवन के संग्राम को, लड़ कर करना पार।
लहरों जैसा खुद बनो, कर लोगों से प्यार।।