
डॉ. हरि नाथ मिश्र, अयोध्या (उ0प्र0)
मन की गति
काबिज न होने देना, मन पे थके बदन को,
तन की थकान देती, उदासी सदा ही मन को।
होता बड़ा दिलेर, सुन लो, इंसान का ये मन-
ज़िंदा-दिली से आदमी, छू लेता है गगन को।।
काबिज न होने……।।
नेपोलियन कहा है, कुछ भी नहीं असंभव,
ऊँचा ही तो मनोबल, करता असंभव संभव।
पहना दो मुश्किलों को सौहार्द की माला-
तरसेंगी तब ये मुश्किलें, कोमल तेरी छुवन को।।
काबिज न होने…….।।
अख़बार में छपोगे, टी.वी.में तुम दिखोगे,
होगा बुलंद तेरा, हर काम जो करोगे।
चर्चा-ए-आम होंगे, तेरे क़ाफिये औ नग़में-
दुनिया पसंद करेगी, तेरी ही हर चलन को।।
काबिज न होने…….।।
राज-पथ पे पट्टिका, तेरे नाम की लगेगी,
शिक्षा-सदन बनेंगे, महफिल अदब सजेगी।
नवाजोगे बस तुम्ही ही, इन्तजामी बैठकों को-
सम्मान देगी दुनिया, तुमको, तेरे वतन को।।
क़ाबिज़ न होने……..।।
तेरी कीर्ति का पताका, फहरेगा चारों-ओर,
नाम का ही तेरे, जन-जन में होगा शोर।
हो जाओगे अमर तुम, अपने ही हौसलों से-
ये आसमाँ भी झुकता, तुझ जैसों के नमन को।।
क़ाबिज़ न होने……..।।
हौसले से बढ़कर, होता नहीं है कुछ भी,
हों हौसले बुलंद तो, न तन थके ही कुछ भी।
हौसलों को अपने, रखना सदा बुलंद-
ग़ुल खिल के ख़ार संग ही, देता खुशी चमन को।।
क़ाबिज़ न होने देना मन पे, थके बदन को,
ज़िंदा-दिली से आदमी, छू लेता है गगन को।।