
डॉ. हरि नाथ मिश्र, अयोध्या (उ0प्र0)
दोहे
जले पराली हो धुआँ, संकट हो घनघोर।
चलना दूभर हो गया, संध्या अथवा भोर।।
करे प्रदूषित वायु को, वाहन की भरमार।
दमघोंटू वातावरण, उपजे रोग-विकार।।
आज प्रदूषण से मचा, कोलाहल चहुँ-ओर।
करें नियंत्रित मिल सभी, देकर इस पर जोर।।
वृक्ष कटे, जंगल घटे, हुआ प्रदूषित नीर।
जीवन संकट से घिरा, हरे कौन अब पीर??
भौतिकवादी सोच तो, होती घातक मीत।
इसे त्याग सुख से भरा, रहा कलश जो रीत।।
साधन से सुविधा बढ़े, हो जग सुख-संपन्न।
अवनि बढ़ा निज शक्ति दे, प्रचुर फूल-फल-अन्न।।
जीवन जीएँ संयमित, तभी मिले सुख-चैन।
सदा आसुरी रीति ही, छीने सुख दिन-रैन।।